शायर ए ख्याल - कविताएं
शायर ए ख्याल
एक शायर या एक लेखक किस तरह सोचता है? ऐसा क्या होता है उसके पास के वो किसी भी चीज़ से प्रभावित होता है और उसको एक अलग अंदाज़ में कागज़ पे उतार देता है?
इसे मैं ऊपरवाले की मेहरबानी मानता हूं के उसने मुझे ये कला बख्शी और इस काबिल बनाया के मैं अपने ज़हन के अंदर जा कर हर बार कुछ नया निकाल ले आऊं। ज़िन्दगी में एक एहसास ही काफ़ी होता है कुछ कर जाने के लिए। मैैं भी अकेलेपन के गहने दश्त में कई रोज़ गुमनाम रहा तब मैंने इस कला को अपने अंदर से ढूंढ़ा। वो मेरी पहली कविता भी रात्रि के उस अंधकार में निकली जब नींद का मैं गुलाम ना था। मुझे मेरे सपने भी एक कविता की तरह दिखते थे। अपने सपनों और उसमे पैदा होती व्यथाओं पर भी एक कविता लिखी थी -
सपने
ये उतावले सपने,
ये ही मेरे अपने,
नींदों में बुने,
फरियादों में सने।
ये सपनों के मकान,
डहते नहीं हैं,
ये ख्वाबों के दुकान,
चुभते नहीं हैं,
फरीयादों और सितम,
का यहां एक मेला है,
दुनिया में ये मन मेरा,
अब भी अकेला है।
- रितेश
आम आदमी को जब कुछ रास नहीं आता, वो उसपे सोचता है, उसपे अपने विचार व्यक्त करता है, पर वो जानता है के उसके बोलने से किसी को फर्क नहीं पड़ेगा, इसमें भी कई अपवाद होते हैं और वो लोग दुनिया को बदलने निकल पड़ते है, पर ऐसे बहुत कम लोग देखने को मिलते हैं। एक कवि की रचना एक क्रांति भी ला सकती है पर साथ ही साथ दंगे भी भड़का सकती थी। मेरा भी मन काफ़ी विचलित होता है कुछ बुरी घटनाओं से पर मैं एक संयमित कवि की भांति अपनी भावनाएं व्यक्त करने का प्रयास करता हूं। वैसी ही एक कविता मैंने लिखी थी:
लेखा जोखा
किश्तों में बंट गई है ज़िन्दगी,
कई उधार हैं,
कई लाचार हैं,
कुछ पे खून सवार है,
तो,
कुछ भूखे बेज़ार हैं।
कहीं रुपयों की मार हैं,
मज़हब भी दो चार हैं,
इसमें सब बंट गए,
बेसुध बेकार हैं।
कहानियां कई हजार हैं,
सुनानी दो चार हैं,
बिकते अब भी वहीं हैं,
जिनके आते इश्तहार हैं।
- रितेश
कभी कभी शायरों पे ये इल्ज़ाम लगता है के वे शराब के गुलाम होते हैं और साथ ही रंगीन मिजाज़ होते हैं। मैं इसे सिरे से खारिज तो नहीं करूंगा पर शायद ऐसा हर शायर या लेखक के साथ ना हो।
एक आशार लिखना भी आसान नहीं है अगर ऊपरवाले की नेमत आप पर ना हो। शराब और माशूक के लिए कितनों ने क्या क्या लिखा, तो हम कैसे पीछे रहते, कोशिश हमने भी करी।
शराब
मैं कागज़ तलाशने चला शेल्फ पर,
कलम ने पुकार करी थी,
मैंने कहा,
अभी ले आया मोहतरमा,
बस तुम नाराज़ मत होना,
जब आई चलने की बात,
कलम से ना मिल रहे साज़,
मैंने पूछा, "अब क्या ज़रूरत आ पड़ी"
दूर नज़र पड़ी उस मेज़ पर,
एक ग्लास कांच का,
और,
ज़रा सी शराब,
देख कलम मुस्कुराई,
मैंने कहा या आज शामत होगी,
या इन पन्नों पर क़यामत होगी।
- रितेश।
हर शायर एक मुसाफ़िर होता है, उसे पहले दिन से ही उम्दा ख्याल नहीं आने लगते, ना ही लोगों की वाह वाही तुरंत मिलती हैं, ये तो एक सफ़र है जिसमें उसे कई मुश्किलातों का सामना करना पड़ता है और अपनी कमियों को परख कर उनपे जीतना होता है। मैं खुद एक अदना सा मुसाफ़िर हूं, जो मंज़िल पाने के लिए निकल पड़ा है खयालों के समुंदर में।
मुसाफ़िर
मुसाफ़िर मैं,
रास्तों की ख़ाक छानता हूं,
काबिल शायद हो गया हूं,
मुश्किलों को पहचानता हूं,
ये सफ़र की तलब है,
या इन आज़ाद हवाओं का नशा,
मैं समय का हूं शागिर्द,
उसके डर से कांपता हूं।
- रितेश।
🙌👏👏👏
ReplyDeleteWonderful lines👍👍
ReplyDelete