कोरोना वायरस से आज पूरी दुनिया वाक़िफ है, और क्यों ना हो, देखते ही देखते कई लाख लोग इससे ग्रसित हो चुके हैं और कई लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भारत भी हर सशक्त देश की तरह इस महामारी से जूझ रहा है, पर हमारे यहां चीज़ें ज़रा अलग होती है, इसमें शायद किसी को कोई संदेह नहीं होगा। हमारे यहां इसको ठीक करने के नुस्खे निकलते है, कई नए बाबा झाड़-फूंक कर इसको ठीक करने का दावा करते है तो कोई सजदे पढ़ कर इन्हें ठीक करने की सलाह देते हैं।पर यहां ना दुआ काम आ रही है और दवा नाम की तो कोई चीज़ है ही नहीं इसकी।
ना तो मैं ये लेख कोई नुस्खा बताने को लिख रहा ना ही किसी को सांत्वना प्रदान करने के लिए। मेरे विचार में ये नियति द्वारा लाया गया एक ठहराव है, अब आप में से कुछ लोग नियति को अगर चीन की वो लैब समझ लें तो भाई वो आपकी तार्किक शक्ति का प्रमाण होगा। मैं इसे ठहराव इसलिए बोल रहा हूं, क्योंकि ये इस आधुनिकीकरण से ग्रसित इस संसार में एक वरदान और एक अभिशाप बन कर आया है। इस अनचाहे मेहमान ने सबको अपने घरों में कैद कर दिया है, चाहे वो अंबानी साहब होएं या फ़िर एक बंधुआ मजदूर। कुछ ही लोग हैं जो इस महामारी में भी काम कर रहे है और अगर वो काम ना करें तो शायद दिक्कतें संभाले ना संभलें, तो कृपया जब ये महामारी खत्म हो आप जिस भी ऐसे व्यक्ति से मिले जो अब भी काम कर रहा है उसको जीवनदाता माने और उनका मान करें।
मैं एक कवि हूं और जो महसूस होता है वो पन्ने पर आ जाता है।
कई चीज़ें मैंने महसूस करी जैसे के ये सड़कें और ये दफ्तर सब वीरान पड़े है, इस बीमारी के नज़र में ना कोई काफ़िर है ना कोई भक्त, क्वारंटाइन जैसे अंग्रेज़ी के शब्द सीखने को मिले और ना जाने क्या-क्या। सब घरों में कैद है, बाहर निकलने से भयभीत और अगर किसी ने झींकने की कोशिश भी करी तो वो शक के दायरे में आ जाता है। पर आज भी मज़हबी द्वेष इस देश का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं है, इसके बारे में विस्तार से लिखने का मन तो है, पर जेल जाने की इच्छा बिल्कुल भी नहीं। चलिए, अब वो कविता लिखता हूं जो इस महामारी को ले कर मेरे मन में आई।
इंसान
इन काफिरों की बस्ती में,
क्यूं रह गए सब अकेले हैं,
कल जहां सड़कों पे शोर था,
आज घरों में लगे मेले हैं।
कैसा ये मेहमान है,
हमारी सांसों से परेशान है,
हम इतना इससे अंजान है,
इस बात पे इसे गुमान है।
इंसानों ने भी क्या खूब किया,
कहीं भी थूका,
कुछ भी पिया,
ग़ुलाम समझी दुनिया उसने,
खेले मदमस्त खेल,
इस अनहोनी की दस्तक पे,
खत्म सारे मेल,
बैठे सारे अकेल।
मेरी इस कविता में रोष भी है, परेशानी भी और थोड़ा मज़ा भी है।
रोष इस कारण क्योंकि कुछ अब भी नासमझी कर रहे और इस मेहमान का अनादर कर रहे, पेरशानी इसलिए क्योंकि ये अब भी लाइलाज है, मज़ा इसलिए क्योंकी परिवार के साथ हूं और वो सब कर रहा जो खुशी देता है। उम्मीद उस दिन की है के एक दिन जब टेलीविज़न खोलूं तो एक खबर आए के इसका इलाज आ चुका है और सब सुरक्षित हैं, और वैसे भी उम्मीद पे तो दुनिया कायम है।
आपकी प्रतिक्रिया का अभिलाषी,
रितेश।
शुक्रिया।
Excellent one
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